झांसी की रानी की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी प्रेरणादायक कहानी
1857 के स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना, भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में पहचान बनाने वाली, शौर्य, संघर्ष, बलिदान और देश भक्ति की प्रतिमूर्ति झांसी की रानी की जयंती पर कोटि-कोटि नमन। उन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। झांसी की रानी का जन्म 19 नवंबर को हुआ था और उनकी पुण्यतिथि 18 जून को आती है।
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित कविता "झांसी की रानी "आज भी जनमानस में नवचेतना भर्ती है,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म, बचपन और शिक्षा
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में वाराणसी में महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी सापरे था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन सब प्यार से उसे मनु बुलाते थे।
जब वह चार साल की थी तो उनकी मां का देहांत हो गया। उनकी देखभाल की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई। उनके पिता जो कि एक मराठा थे और वह बिठूर के पेशवा बाजीराव के दरबार में नौकरी करते थे इसलिए उनके पिता उन्हें अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले गए। पेशवा बाजीराव के पुत्र जो नाना साहब के नाम से विख्यात है वह मनु को अपनी बहन की तरह मानते थे। वह उनको छबीली कह कर बुलाते थे। उनके साथ ही उन्होंने मल्लयुद्ध , घुड़सवारी और शस्त्र विद्या, युद्ध कला, व्युह रचना सीखी थी जिसके कारण उनमें नेतृत्व के गुण भी आ गए थे।
झांसी की रानी का विवाहिक जीवन
मणिकर्णिका का विवाह 14 वर्ष की आयु में 1851 में गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ । शादी की परम्परा के अनुसार उनका नाम बदल कर रानी लक्ष्मीबाई रखा गया और वह झांसी की रानी बनी। लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। जिसके जन्म की बहुत खुशी मनाई गई लेकिन दुर्भाग्यवश जब वह चार मास का हुआ तो उसकी मृत्यु हो गई। गंगाधर राव पुत्र वियोग में बिमार रहने लगे। उस समय अंग्रेज Doctrine of Lapse की नीति के अनुसार जिस राजा का पुत्र नहीं होता था। उस शासक का राज्य अंग्रेज हकुमत में मिला लेते थे।
इसलिए 19 नवंबर 1853 को उन्होंने अपने रिश्तेदार वासुदेव राव नेवालकर के पुत्र आंनद राव को गोद ले लिया और अपने दत्तक पुत्र का नाम उन्होंने दामोदर राव रखा। कहा जाता है कि उसके जन्म के समय ज्योतिषी ने बताया था कि इसके भाग्य में राज योग है।
झांसी की रानी द्वारा स्त्री सेना का निर्माण
झांसी की रानी ने अंग्रेजों के षड्यंत्रों को भांपते हुए स्त्री सेना का भी निर्माण किया था। झलकारी बाई, काशी साईं, जूड़ी, मोती बाई आदि अपनी सहेलियों को उन्होंने घुड़सवारी, शस्त्र विद्या और युद्ध कला सिखाई थी ताकि जरूरत पड़ने पर स्त्री सेना अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर सके। अपनी स्त्री सेना का प्रदर्शन जब गंगाधर राव के सामने किया था तो वह लक्ष्मी बाई से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा था कि तुम में सरस्वती और दुर्गा दोनों की झलक दिखाई देती है। ऐसे तुम सरस्वती दिखती हो और शस्त्र चलाते समय दुर्गा नज़र आती हो। झांसी की रानी का मानना था कि,"सती होने से बेहतर है कि स्त्री युद्ध भूमि में शत्रु का नाश करते हुए प्राणों का त्याग करें।"
झलकारी बाई झांसी की महिला सेना की सेनापति थी। कहते हैं कि वह झांसी की रानी की हमशक्ल लगती थी और शत्रुओं को गुमराह करने के लिए झांसी की रानी के जैसे रूप में युद्ध करती थी। झलकारी बाई के पति पूरन सिंह झांसी की सेना में एक सैनिक थे उन्होंने ही झलकती बाई को झांसी की रानी से मिलवाया था। उनकी बहादुरी के बारे में बुंदेलखंड के गीत और लोकगाथाएं सुनी जा सकती है।
गंगाधर राव का स्वर्ग वास और अंग्रेजों द्वारा झांसी को हड़पने की साज़िश
21 नवंबर 1853 को गंगाधर राव स्वर्ग सिधार गए। अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को उतराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और 1854 में झांसी को अंग्रेज हकुमत में मिलाने का आदेश जारी कर दिया। लक्ष्मी बाई ने उनके आदेश को मानने से इंकार कर दिया और कहा कि,"मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी"और झांसी के राजमहल से ही राज्य का संचालन करने लगी।
झांसी की सुरक्षा के लिए सेना का गठन
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा के लिए कई राज्यों के साथ मिलकर सेना तैयार की थी। उनकी सेना में अस्त्र शस्त्र के जानकार गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श , काशी साईं, मोती बाई, सुंदर -मुंदर, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह सहित बहुत से सैनिक थे। झलकारी बाई उनकी महिला सेना की शाखा दुर्गा दल की सेनापति थी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने योगदान दिया। जब भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। अंग्रेजों ने बंदूक के कारतूस पर सूअर और गाय के मांस की परत चढ़ा दी थी जिससे हिंदूओं की भावनाएं आहत हो गई थी पूरे देश में इसके खिलाफ विद्रोह हो गया। झांसी 1857 के विद्रोह का मुख्य केंद्र बना।
1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा और दतिया ने झांसी पर आक्रमण किया तो झांसी की रानी ने अपना अदम्य साहस दिखाते हुए शत्रु को युद्ध में हरा दिया।
ह्यूरोज का झांसी पर आक्रमण
4 अप्रैल 1858 में जब ह्यूरोज ने नेतृत्व में अंग्रेजों ने आक्रमण किया था तो झांसी की रानी तांत्याटोपे के नेतृत्व में हज़ारों सैनिकों के साथ लड़ी थी। लेकिन अंग्रेज किले की दिवारों को भेदने में कामयाब रहे तो झांसी की रानी अपने पुत्र दामोदर राव को लेकर किले से निकल गई। उस समय झलकारी बाई ने झांसी की रानी को महल से निकालने के लिए स्वयं झांसी की रानी के जैसी वेशभूषा में युद्ध किया। जिस कारण लक्ष्मी बाई वेशबदल कर किले से निकलने में कामयाब हो गई।
4 अप्रैल को झांसी की रानी अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर अपने चार विश्वास पात्र सहयोगियों के सहित वहां से निकल कर 24 घंटे में लगभग 100 मील तय कर काल्पी पहुंची। जहां नाना साहब और तांत्या टोपे पहले से मौजूद थे । काल्पी से सबने ग्वालियर की ओर कूच किया। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को सौंप दिया।
झांसी की रानी की मृत्यु
18 जून 1858 को ग्वालियर के समीप कोटा की सराय में अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए उनकी मृत्यु हुई थी। झांसी की रानी के पास पर्याप्त सेना नहीं थी इसलिए जब वह नाला पार कर रही थी तो उनका घोड़ा नाले पर कूद नहीं पाया और रानी लक्ष्मीबाई घायल हो गई। कहते हैं कि उनका एक सैनिक उन्हें कंधे पर डाल कर एक मंदिर ले गया। झांसी की रानी ने अंतिम इच्छा के तौर पर कहा था कि," कोई अंग्रेज मेरे शरीर को हाथ ना लगाएं।" बाबा गंगादास की कुटिया में झांसी की महारानी ने देह त्याग किया वहीं चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया था।
झांसी की रानी से हम क्या प्रेरणा ले सकते हैं
झांसी की रानी महिला सशक्तिकरण की एक मिसाल तब कायम की जब औरतों को ज्यादा अधिकार भी नहीं होते थे। वह उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है जो स्वयं को बहादुर और निड़र मानती है। घर और परिवार की जिम्मेदारी के साथ बाहर निकल काम कर रही है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका थीं। अपनी अंतिम सांस तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती रही कभी भी उनके आगे झुकी नहीं। वह इतनी बहादुरी से लड़ी कि अंग्रेज भी उसकी बहादुरी के कायल हो गए।
हम लक्ष्मीबाई से स्वाभिमानी, कर्त्तव्य पारायण स्वयं पर आत्मविश्वास करना आदि गुणों की प्रेरणा ले सकते हैं। उनमें पराक्रम और साहस अकल्पनीय था।
लक्ष्मी बाई कभी अपने आदर्शों के आगे झुकी नहीं। उनका दत्तक पुत्र दामोदर राव मात्र सात वर्ष का था जब वह उसको अपनी पीठ के साथ बांधकर युद्ध भूमि में गई थी। उन्होंने हालातों का रोना नहीं रोया । हम रानी लक्ष्मीबाई से कठिन परिस्थितियों में भी उचित निर्णय लेना सीख सकते हैं।
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