मित्रता पर कहानी हिन्दी में
हर एक के जीवन में कोई ना कोई ऐसा मित्र जरूर होना चाहिए जोकि हर मुश्किल में आपका साथ दे , जरुरत पड़ने पर आपको वास्तविकता का आईना दिखा सके। मित्रता का रिश्ता ऐसा होता है जो हम स्वयं बनाते हैं।
श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता इस बात का उदाहरण है कि सच्चा मित्र चाहे जीवन की कितनी भी ऊंचाइयों पर पहुंच जाएं वह अपने मित्र के लिए पहले जैसा ही रहे। सुदामा जब श्री कृष्ण से मिलने आएं तो श्री कृष्ण द्वारिकाधीश बन चुके थे लेकिन जब श्री कृष्ण को पता चला कि उनके बचपन का मित्र सुदामा आया है तो वह नंगे पांव दौड़े गए। उनके सम्मान के लिए उन्हें अपने आसन पर बैठाया। सुदामा श्री कृष्ण से आर्थिक सहायता मांगने आएं थे लेकिन संकोच वश श्री कृष्ण से कुछ ना मांग पाएं।
लेकिन श्री कृष्ण उनकी व्यथा बिना बोले ही समझ गए और उनको धन-वैभव से सम्पन्न कर दिया। उनकी टूटी कुटिया के स्थान पर विश्वकर्मा से कह कर सुंदर महल बनवा दिया। तभी तो कहते हैं कि
दूसरी ओर श्री कृष्ण और अर्जुन की मित्रता इस बात का उदाहरण है कि जीवन में अगर आप एक अच्छा मित्र बना लेते हैं तो वह हर परिस्थिति में आपका साथ देता है और आपका उचित मार्गदर्शन करता है।
मित्र का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। विश्व भर में अगस्त महीने के पहले रविवार को मित्रता दिवस मनाया जाता है। मित्रता दिवस मनाने का उद्देश्य इस दिन मित्र द्वारा हमारे जीवन में दिए गए सहयोग, भावनात्मक लगाव, हर समय साथ देने की उनकी भावना को सम्मानित करना है। 2024 में मित्रता दिवस 4 अगस्त को मनाया जाएगा।
Friendship day 2024: पर पढ़ें श्री कृष्ण और अर्जुन की सच्ची मित्रता की कहानी
krishna and arjuna friendship story in hindi:श्री कृष्ण और अर्जुन की मित्रता की मिसाल आज तक दी जाती है। अर्जुन और श्रीकृष्ण रिश्ते में भाई भी लगते थे।
अर्जुन श्री कृष्ण पर अटूट विश्वास करते थे। अर्जुन और श्रीकृष्ण की कहानी हमें सिखाती है कि जीवन में आपकी सफलता इस बात पर भी निर्धारित होती है कि आपका सलाहकार या फिर आपकी संगति कैसी है और वह आपको कैसे प्रेरित करता है। अर्जुन ने एक फैसला लिया था कि मुझे अक्षौहिणी सेना नहीं अपितु केवल श्रीकृष्ण ही चाहिए।
जब महाभारत का युद्ध होना निर्धारित हो गया तो अर्जुन और दुर्योधन दोनों श्री कृष्ण से सहायता मांगने पहुंचे।
श्री कृष्ण ने दोनों से कहा कि ,"मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा। एक तरफ मेरी अक्षौहिणी सेना और दूसरी तरफ मैं।"
अर्जुन ने बिना किसी संशय के अपने मित्र श्री कृष्ण को चुना । दूसरी ओर दुर्योधन को लगा कि, "यह निहत्था कृष्ण इन पांडवों की क्या सहायता कर पाएंगा?
श्री कृष्ण ने अर्जुन के सारथी बनने का निर्णय लिया। श्री कृष्ण उस समय द्वारिकाधीश थे लेकिन उन्होंने एक सच्चे मित्र के रूप में अर्जुन का पग-पग पर साथ दिया। बिना किसी संकोच के एक सारथी के रूप में अपने सभी कर्मों का अच्छे से निर्वाह किया।
अर्जुन को भगवद्गीता का ज्ञान देना
महाभारत युद्ध से पहले कुरूक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाएं जब आमने-सामने हुई तो अपने स्वजनों भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, कृपाचार्य और अपने भाईयों को देखकर अर्जुन का मन व्यथित हो उठा। अर्जुन के मन में अंतर द्वंद्व चल रहा था कि उसे युद्ध करना चाहिए या नहीं। क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म था। लेकिन उस समय भम्रित हो गया था।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि क्षत्रिय होने के नाते तुम को अपने क्षत्रिय धर्म का ज्ञान होना चाहिए। एक सैनिक के लिए युद्ध करने के बढ़कर अन्य कोई कर्तव्य नहीं है । अतः तुमको युद्ध करने से संकोच नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि तू युद्ध करने के स्वधर्म को नहीं करेगा तो तू योद्धा के रुप से अपने यश खो देगा और तुम पर अपने कर्तव्य कर्म की उपेक्षा करने का पाप लगेगा।
उस समय भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का ज्ञान दिया और अपना विराट रूप दिखाया। भगवद्गीता का ज्ञान सुनकर अर्जुन के मन की सभी शंकाएं दूर हो गई और उसने एक सैनिक के रूप में अपना कर्म को ईमानदारी से निभाने और युद्ध करने का निश्चय किया।
जीवन में एक दोस्त श्री कृष्ण जैसा होना चाहिए जब हम अपने रास्ते से भटक जाए तो वह बिना किसी संकोच के हमें डांट कर या फिर प्यार से प्रेरित कर सके। महाभारत युद्ध में श्री कृष्ण ने चाहे शस्त्र नहीं उठाए लेकिन उन्होंने बहुत बार अर्जुन को संरक्षित और सुरक्षित किया।
अर्जुन को पांच तीर मांगने दुर्योधन के पास भेजना
महाभारत युद्ध के दौरान एक बार दुर्योधन ने भीष्म पितामह से कहा कि," आप पूरी निष्ठा के साथ युद्ध नहीं लड़ रहे। पांडवों की सेना हम पर भारी पड़ रही है।"
भीष्म पितामह कहते हैं कि," मैं तो पूरी निष्ठा से युद्ध लड़ रहा हूं।"
दुर्योधन कहता है कि," आपको अपनी निष्ठा साबित करनी होगी।"
भीष्म पितामह ने तब पांच तीर अभिमंत्रित कर कहा कि यह तीर कल पांडवों का काल साबित होंगे।
दुर्योधन कहने लगा कि, यह तीर कल युद्ध शुरू होने तक मेरे पास ही रहेंगे। दुर्योधन को लगता था कि पांडव भीष्म पितामह के चहेते हैं इसलिए कहीं सुबह तक उनका मन ना बदल जाएं।इसलिए दुर्योधन तीर लेकर अपने शिविर में चला गया।
जब श्री कृष्ण को अपने गुप्तचरों से भीष्म पितामह के अभिमंत्रित तीर दुर्योधन के पास होने का समाचार मिला तो श्री कृष्ण तुरंत अर्जुन के पास गए।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को सारी बात बताई और कहा- तुम दुर्योधन से वो तीर मांग कर लें आओ।
अर्जुन बोले- माधव दुर्योधन मुझे वह तीर क्यों देगा?
श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्मरण करवाया कि एक बार तुमने वनवास के द्वौरान दुर्योधन की जान गंधर्वों से बचाई थी। उसके बदले उसने कहा था कि," तुम इसके बदले भविष्य में कुछ भी मांग सकते हो। आज तुम जाओ दुर्योधन से पांचों तीर मांग कर लें आओ।"
अर्जुन ने श्री कृष्ण की बात मानी और दुर्योधन के शिविर में जाकर उसे उसका वचन याद दिलाया। उस समय दिये हुए वचन का बहुत महत्व होता था। इसलिए दुर्योधन ने पांचों तीर अर्जुन को सौंप दिए। इस तरह श्री कृष्ण ने अपनी सूझ-बूझ से पांचों पांडवों की जान बचाई ली।
अर्जुन के अहंकार ना होने देना
युद्ध के दौरान एक बार अर्जुन का तीर लगने से कर्ण का रथ 25 -30 हाथ पीछे खिसक जाता और कर्ण का तीर लगने से अर्जुन का रथ 2-3 हाथ पीछे खिसक जाता। श्री कृष्ण हर बार इस बात के लिए कर्ण की तारीफ करते। यह देखकर अर्जुन से रहा नहीं गया और उसने श्री कृष्ण से पूछ ही लिया। माधव आप जानते हैं कि मेरा कौशल कर्ण से ज्यादा है फिर भी आप उसकी ही तारीफ कर रहे हैं।
श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए अर्जुन को बताया कि," तुम्हारे रथ की ध्वजा पर स्वयं हनुमान जी विराजमान हैं और मैं नारायण स्वयं तुम्हारे रथ का सारथी हूं। उसके पश्चात भी अगर कर्ण तुम्हारे रथ को एक हाथ भी पीछे खिसका रहा है तो वह वास्तव में तारीफ के योग्य है और एक महान योद्धा है।"
इस तरफ श्री कृष्ण युद्ध के दौरान अर्जुन को बिना संकोच के वास्तविकता का एहसास करवाते रहते थे।
श्री कृष्ण ने जयद्रथ वध में, कर्ण के वध में अर्जुन का उचित मार्गदर्शन किया। महाभारत युद्ध में पांडवों के विजयी होने तक हर पल श्री कृष्ण ने अर्जुन के साथ सच्ची मित्रता निभाते हुए पग-पग पर उसका मार्गदर्शन किया।
इसलिए कहा जाता है कि "जीवन में एक मित्र श्री कृष्ण जैसा होगा चाहिए जो युद्ध भले ना लड़े लेकिन विजय सुनिश्चित हो जाए।"
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