BAHUDA YATRA JAGANNATH RATH YATRA
जगन्नाथ रथयात्रा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को आरंभ होती है। जगन्नाथ रथयात्रा 20 जून से प्रारंभ हो चुकी है। भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के संग सात दिनों के लिए गुंडीचा मंदिर में रहते हैं।
जगन्नाथ रथयात्रा के पांचवें दिन हेरा पंचमी का उत्सव होता है जब माता लक्ष्मी जगन्नाथ जी को ढूंढते हुए गुंडीचा मंदिर पहुंच जाती है। जगन्नाथ जी से अपना गुस्सा दर्शाने के लिए उनके रथ का एक हिस्सा तोड़ कर वापस आ जाती है।
संध्या दर्शन - आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को बहुधा यात्रा से एक दिन पहले भगवान जगन्नाथ अपने भक्तों को गुंडीचा मंदिर में अंतिम दर्शन देते हैं जिसे संध्या दर्शन कहा जाता है।
BAHUDA YATRA: आषाढ़ मास की दसवीं तिथि को बहुधा यात्रा आरंभ होती है। जगन्नाथ जी बलभद्र और सुभद्रा माता सात दिन तक गुंडीचा मंदिर में रहने के पश्चात अपने भव्य रथों पर सवार होकर जगन्नाथ मंदिर की ओर लौट आते हैं। यह दिन श्री भगवान के गुंडीचा मंदिर में उनके प्रवास के अंत का प्रतीक माना जाता है। गुंडीचा मंदिर से भगवान के प्रस्थान के पश्चात अगले वर्ष की रथयात्रा तक खाली रहता है। भगवान गुंडीचा मंदिर में जन्म वेदी - जन्मस्थल से श्री मंदिर में कर्म बेदी - कर्म स्थल तक जाते हैं।
भगवान जगन्नाथ को विदा करवाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। श्री बलभद्र और सुभद्रा जी के रथ मंदिर की ओर बढ़ते रहते हैं लेकिन जगन्नाथ जी का रथ मार्ग में कुछ पड़ाव पर रुकते हैं।
बहुधा यात्रा के दौरान श्री जगन्नाथ जी का रथ मौसीमां मां अर्धासिनी मंदिर में रूकता है जहां जगन्नाथ जी को नारियल, चावल गुड़ और दाल से बनी मिठाई पोड़ा पीठा का भोग लगाया जाता हैं। उसके पश्चात जगन्नाथ रथयात्रा आगे बढ़ती है।
जगन्नाथ जी के मन में हेरा पंचमी के दिन जगन्नाथ जी रूठी हुई मां लक्ष्मी को मनाने की तीव्र इच्छा है। इसलिए वह लक्ष्मी को मनाने का प्रयास करते हैं। सेवायत जगन्नाथ जी के रथ को गजपति महाराज के निवास पर ले जाते हैं। वहां स्वर्ण लक्ष्मी जी के विग्रह को जगन्नाथ जी से मिलाने के लिए लाया जाता है। वहां जगन्नाथ जी की माला देवी लक्ष्मी को दी जाती है।
माला प्राप्त करने के पश्चात लक्ष्मी जी नंदीघोष रथ के चक्कर लगाने के पश्चात श्री मंदिर वापस लौट जाती है। उसके पश्चात भगवान जगन्नाथ की के रथ को श्री मंदिर लाया जाता है। सिंह द्वार पर यह रथयात्रा का अंत होता है। जहां पर भगवान बलभद्र और सुभद्रा जी से मिलते हैं जिनके रथ पहले ही श्री मंदिर पहुंच चुके हैं। तीनों विग्रह भक्तों के दर्शन के लिए रथ पर ही विराजमान रहते हैं।
एकादशी के दिन भगवान को एक विशेष पेय अर्पित किया जाता है। जिसे अधार पना कहा जाता है। संध्या के साथ तीनों विग्रहों को सुनर वेश से सजाया जाता है। भगवान के इस अलौकिक स्वरुप के दर्शन पाने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है।
आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि तक श्री मंदिर में देवताओं के मंदिर में विराजमान होने तक रथों पर विराजमान भगवान के श्री विग्रहों के अनुष्ठान चलते रहते हैं।
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