MAHABHARAT STORY IN HINDI

MAHABHARAT STORY IN HINDI MOTIVATIONAL STORIES OF MAHABHARAT Mahabharat Katha stoty of mahabharatमहाभारत की प्रेरणादायक कहानियां 

 महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां 

महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास जी ने की थी। महाभारत में बहुत ही ज्ञानवर्धक कहानियां हैं जो वर्तमान समय में भी हमारा मार्ग दर्शन करती है। 

Mahabharat story: महाभारत की राजा शिवी की कहानी

 राजा शिवी (RAJA SHIVI) दयालु और परोपकारी राजा थे। उनका वर्णन महाभारत के वन पर्व में आता है। उन्होंने बाज़ से कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर सौंप दिया था।

 राजा शिवी उशीनगर राज्य के चक्रवर्ती सम्राट थे। उनकी दयालुता, परोपकार के लिए उनकी प्रसिद्धी चारों ओर फैल गई थी। उनके बारे में यह ही कहा जाता था कि उनके दरबार मे कोई भी याचक कभी भी निराश होकर नहीं लौटता था।

वह किसी भी तरह के त्याग और समर्पण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। उनके परोपकार और बलिदान की चर्चा जब पृथ्वी पर चारों ओर होने लगी तो यह बात देवराज इन्द्र तक भी पहुंची।

देवराज इन्द्र ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। वह देखना चाहते थे कि क्या राजा शिवी सचमुच इतने दयालु है या फिर दयालु होने का स्वांग कर रहे हैं । इस कार्य के लिए उन्होंने अग्नि देव को उनका साथ देने के लिए तैयार कर लिया। अग्नि देव ने कबूतर का रूप धारण कर लिया और इन्द्र देव ने बाज़ पक्षी का रूप धारण कर लिया। 

अग्नि देव कबूतर के रूप में राजा शिवी के दरबार में ऐसे पहुंचे की मानो बाज़ उनका शिकार कर रहा हो। कबूतर के रूप में अग्नि देव ने हीन हीन अवस्था में राजा से याचना की कि," हे राजन! मैं आपकी शरण में आया हूं। यह बाज़ मेरे प्राण हरने मेरे पीछे आ रहा है। राजन! मुझ शरणागत की रक्षा करें।"

राजा शिवी ने कबूतर को कहा कि," तुम चिंता मुक्त हो जाओ । अब तुम मेरी शरण में हो इसलिए अब बाज़ तुम्हारे प्राण नहीं ले सकता। मैं तुम्हें तुम्हारी रक्षा का वचन देता हूं। जैसे ही राजा शिवी ने कबूतर को वचन वैसे ही देवराज इन्द्र बाज का रूप धारण कर राजा शिवी के पास जा पहुंचे। उन्होंने राजा को बताया कि यह कबूतर मेरा शिकार हैं इसलिए इसे मुझे सौंप दो। बाज़ की बात सुनते ही राजा शिवी बोल उठे कि यह कबूतर मेरी शरण में है। इसलिए इसके प्राणों की रक्षा करना मेरा दायित्व है। मैं इसे तुम्हें नहीं सौंप सकता।

 इतना सुनते ही बाज़ राजा शिवी से कहने लगा कि,"राजन यह कबूतर मेरा शिकार हैं। इसको मारकर मैं अपनी और अपने बच्चों की भूख मिटाऊंगा। अगर तुम इस कबूतर को मुझे नहीं सौंपते तो मैं और मेरे बच्चे भूखे ही रह जाएंगे और उसका पाप तुम को लगेगा।"

बाज़ की यह बात सुनकर राजा शिवी बोले कि," अगर मैं तुम्हें इस कबूतर के बदले उतने ही वजन का मांस दे दूं तो इससे तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को भोजन मिल जाएगा और सबकी भूख खत्म हो जाएगी। कबूतर के प्राण भी बच जाएंगे और मेरा वचन भी नहीं टूटेगा।"

इतना सुनते ही इंद्र ने एक शर्त रखी कि राजा शिवी कबूतर के वजन के जितना अपने शरीर मांस मुझे देना होगा।

बाज़ की बात सुनकर राजा शिवी प्रसन्न हो गए कि इससे मेरा वचन भी रह जाएगा और बाज़ और उसके परिवार के भूखा रहने का पाप भी नहीं लगेगा।‌‌

राजा ने दरबार में तराजू लाने का आदेश दिया। राजा शिवी ने एक पलड़े में कबूतर को रखा और दूसरे में अपने शरीर का एक टुकड़ा काटकर तराजू पर रख दिया। लेकिन तराजू बिल्कुल भी टस से मस नहीं हुआ। 

राजा शिवी ने अपने शरीर का एक और टुकड़ा तराजू पर रखा लेकिन कबूतर के वजन के बराबर नहीं था। उसके पश्चात राजा बार-बार मांस का टुकड़ा काट कर पलड़े पर रखते गए। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कबूतर का पलड़ा हर बार भारी ही रहता।

 अंत में राजा ने कबूतर की जान बचाने के लिए स्वयं ही पलड़े में बैठने का निर्णय लिया। जैसे ही राजा शिवी पलड़े में बैठे पलड़ा ऊपर उठ गया। राजा बाज़ से कहने लगे कि," तुम मुझे खाकर अपनी और अपने बच्चों की क्षुधा शांत कर लो लेकिन इस कबूतर को छोड़ दो।"

राजा शिवी की ऐसी याचना सुनकर देवराज इन्द्र और अग्नि देव अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। देवराज इन्द्र राजा शिवी से कहा कि तुम्हारे परोपकार और बलिदान की चर्चा सुनकर हम दोनों आपकी परीक्षा लेने आएं थे। क्या तुम सच में इतने परोपकारी हो या फिर ऐसा होने का ढोंग करते हो। लेकिन तुम वास्तविकता में भी बहुत ही परोपकारी और दयालु हो। 

तुम ने एक मामूली से कबूतर के लिए अपने प्राणों तक की परवाह नहीं की। सचमुच आपके बराबर इस ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई नहीं है। देवराज इन्द्र और अग्नि देव राजा शिवी को आशीर्वाद देकर स्वर्ग लोक वापस लौट गए। 

यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि हमें परोपकार और दयालुता का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

Lakshagrah ki kahani महाभारत की लाक्षागृह की कहानी 

Mahabharat story: लाक्षागृह का वर्णन महाभारत में आता है। लाक्षागृह एक ऐसा भवन था जो कि ज्वलनशील पदार्थ से बना था। इस भवन का निर्माण दुर्योधन और उसके मामा शकुनि ने पांडवों को मरवाने के लिए करवाया था। लेकिन पांडव विदुर जी की दूरदर्शिता के कारण इस षड्यंत्र ( The Varnavat conspiracy) षड्यंत्र से बच निकले थे। 

mahabharat katha:धृतराष्ट्र के आदेश पर पांचों पांडव अपनी मां कुंती के साथ वर्णावर्त महादेव का मेला देखने जाने के लिए तैयार हो गए। दुर्योधन और मामा शकुनि युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का युवराज बनने के पश्चात से ही कोई ऐसा मौका खोज रहे थे कि जिससे युधिष्ठिर और उसके भाइयों को रास्ते से हटाया जा सके।

जब उन्हें युधिष्ठिर के वर्णावर्त जाने का समाचार मिला तो धूर्त दुर्योधन ने अपने मंत्री पुरोचन को कहा कि पांडव अब कुछ समय वर्णावर्त में रहेंगे। तुम वहां पर एक ऐसे भवन का निर्माण करो जिसके अंदर घी, चर्बी और लाख आदि ज्वलनशील पदार्थ भरा हो। जिसमें शीघ्रता से अग्नि भड़क जाए। ऊपर से उसे इतना सुंदर बनाना कि उन पांडवों को सत्य का पता न चल सके।

जब वह पूर्णतया निश्चित हो जाए तब किसी रात्रि उनके सोने के पश्चात उसमें आग लगा देना। इस तरह अपने रहने के स्थान पर मरने से किसी को हम पर शंका भी नहीं होगी और हम निन्दा से भी बच जाएंगे। 

पुरोचन दुर्योधन की बात सुनकर शीघ्रता से महल‌ तैयार करवाने के लिए चला गया। समय आने पर पांडव अपनी मां कुंती के साथ वरणावत की यात्रा पर निकल पड़े। विदुर जी को अपने गुप्तचरों से शकुनि और दुर्योधन की इस साज़िश का पता लग गया था।

विदुर जी ने पांडवों को सांकेतिक भाषा में समझा दिया कि आग पूरे जंगल को जलाकर राख कर देती है परन्तु बिल में रहने वाले जीव उस आग में भी सुरक्षित बच जाते हैं। विदुर ने ऐसी ही बहुत सी ज्ञानवर्धक बातें युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में बताई। 

युधिष्ठिर विदुर जी का संकेत समझ गए थे ऐसा आभास उन्होंने विदुर जी को करवा दिया। वरणावत पहुंचने पर पुरवासियों ने उनका आदर सत्कार किया।‌ पुरोचन ने उनको उस सुंदर से दिखने वाले भवन में ठहराया। उस भवन‌ का युधिष्ठिर ने ध्यान पूर्वक निरीक्षण किया तो उस भवन को घी, चर्बी और लाख की गंध से वह जान गया कि इसके अंदर आग भड़कने वाली सामग्री को भरा गया है। युधिष्ठिर ने इस परिस्थिति से अपने भाइयों और मां को अवगत करवा दिया।

भीम कहने लगा कि हमें इस भवन को छोड़कर चले जाना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा नहीं- हमें पुरोचन को अपने हाव भाव से शक नहीं होने देना कि हम सब कुछ जानते हैं।

विदुर जी ने पहले ही इस स्थिति को भांप लिया था इसलिए उन्होंने हमें सतर्क रहने और अपनी बचने की रणनीति बनाने का संकेत दिया था।‌ पुरोचन या दुर्योधन को यह बात पता चली तो वह बलपूर्वक भी हमें मरवा सकता है।‌

हमें विदुर जी की सलाह मानकर एक सुरंग बनानी चाहिए और दिन भर वन में घूम-घूम कर रास्तों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।

विदुर जी ने अपने एक विश्वासपात्र को पांडवों के भवन में सुरंग खोदने के लिए भेज दिया। उसने युधिष्ठिर को अपना परिचय दिया और सुरंग खोदने का कार्य शुरू कर दिया।

पांडव पूरा दिन शिकार खेलने के बहाने वन में घूम-घूम कर रास्तों की पहचान कर लेते। पुरोचन को अब लगने लगा था कि पांडव अब पूरी तरह से निश्चित है अब आग लगा देनी चाहिए।‌

एक दिन कुन्ती ने दान दक्षिणा देने के लिए बहुत से लोगों को बुलाया। संयोग वश एक भीलनी भी अपने पांच पुत्रों के साथ वहां पर आई उसने ही भवन बनाने में पुरोचन की मदद की थी। अधिक मदिरा के सेवन करने के कारण वें रात को भवन में ही सो गए। 

भीम ने जहां पर पुरोचन सो रहा था वहां पर आग लगा दी और उसके पश्चात भवन‌ में भी आग लगा दी। पांचों पांडव माता कुंती के साथ विदुर जी के सहायक द्वारा बनाई गई सुरंग से बाहर निकल आए। पुरा भवन‌ धू धू कर जलने लगा। वर्णावर्त के वासी भवन की ओर दौड़े। सभी दुर्योधन और पुरोचन को धिक्कार रहे थे । पांडव सुरंग से निकल कर सुरक्षित वन‌ में पहुंच गए।‌‌ नाव से नदी पार कर सुरक्षित स्थान की ओर निकल पड़े।

उधर लाक्षागृह में भीलनी और उसके पांच पुत्रों के शवों को देखकर वरणावत वासियों ने इसे पांच पांडवों और कुंती का शव समझा। यह समाचार हस्तिनापुर पहुंचा तो शकुनि और दुर्योधन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था कि चलो रास्ते का कांटा हट गया और उनकी योजना सफल हो गई। 

महाभारत की इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि खतरे का पूर्वाभास होने पर समय रहते उससे बचने के उपाय ढूंढ लेना चाहिए। 

 

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