MOTIVATIONAL STORY OF RAJA VIKRAMADITYA IN HINDI

MOTIVATIONAL STORY OF RAJA VIKRAMADITYA RAJA VIKRAMADITYA STORIES IN HINDI राजा विक्रमादित्य की प्रेरणादायक कहानी

राजा विक्रमादित्य की प्रेरणादायक कहानी

राजा विक्रमादित्य ने एक बार महाभोज का आयोजन किया। भोज के दौरान चर्चा होने लगी कि इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा दानी कौन है? लगभग सभी लोग राजा विक्रमादित्य को सबसे बड़ा दानी मान रहे थे। तभी राजा विक्रमादित्य की नजर एक पंडित पर पड़ी। उसके चेहरे के भाव से लग रहा था कि उसके मन में कुछ और ही चल रहा है। 

राजा ने उस पंडित जी से उनके विचार पूछे। पंडित जी कहने लगे कि," महाराज मैं दुविधा की स्थिति में हूं। महाराज अगर मैं सबकी हां में हां मिलाता हूं तो मैं झूठ बोलने के पाप का भागीदार बनता हूं और अगर मैं सच बोलता हूं तो मुझे राजा के कोपभाजन का डर सता रहा है।"

उसका उत्तर सुनकर राजा विक्रमादित्य की जिज्ञासा बढ़ गई और वह कहने लगे कि ,"तुम निर्भय हो कर अपना विचार रख सकते हो तुम को किसी तरह का दंड नहीं दिया जाएगा।"

वह पंडित कहने लगा कि," महाराज आप निश्चित तौर पर बहुत बड़े दानी है लेकिन यह बात भी सत्य है कि आप पृथ्वी पर सबसे बड़े दानी नहीं है।" उसकी बात सुनकर पूरी सभा आश्चर्य चकित हो गई। पूरी सभा पूछने लगी कि," महाराज विक्रमादित्य से भी बड़ा दानी कौन है?"

पंडित जी कहने लगा कि,"समुद्र के उस पार कीर्तिध्वज नाम का एक राजा है जो प्रतिदिन एक लाख सोने की मुद्राएं दान करने के पश्चात ही अन्न जल ग्रहण करता है।"

 यह बात प्रमाणित है क्योंकि जब मैं उनके राज्य में गया था तो मैंने स्वयं कई दिनों तक उनसे स्वर्ण मुद्राएं दान में ली है। अगर यह बात असत्य निकले तो आप मुझे कोई भी दंड दे सकते हैं। इस सत्य के कारण ही मैं सभा में खामोश रहा था। राजा विक्रमादित्य उसकी सत्यवादिता से प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत किया।

 अब राजा विक्रमादित्य ने उस ब्राह्मण के कथन की प्रमाणिता को जानने के लिए एक साधारण मनुष्य का वेश किया। उन्होंने दोनों बेतालों को स्मरण किया और दोनों बेतालों को राजा विक्रमादित्य ने उन्हें समुद्र पार राजा कीर्तिध्वज के राज्य तक पहुंचाने का आदेश दिया। दोनों बेतालों ने उन्हें पलक झपकते ही वहां पहुंचा दिया।

राजा विक्रमादित्य ने वहां पहुंच कर महल के द्वारपालों से कहा कि," मैं उज्जैन से आया हूं और राजा से मिलना चाहता हूं।"

राजा कीर्तिध्वज जब उनसे मिले तो उन्होंने कहा कि आप मुझे अपने यहां नौकरी पर रख लें। राजा कीर्कित्तध्वज ने पूछा कि," आप कौन सा काम कर सकते हैं।" राजा विक्रमादित्य कहने लगे कि," जो काम कोई नहीं कर सकता मैं वह काम भी कर सकता हूं।"

राजा कीर्कित्तध्वज उनके उत्तर से प्रसन्न हुए और उन्हें द्वारपाल के रूप में नियुक्त कर दिया। राजा विक्रमादित्य ने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज हर रोज एक लाख सोने की मुद्राएं दान करने के पश्चात ही अन्न जल ग्रहण करते।

राजा विक्रमादित्य ने देखा कि कीर्तिध्वज प्रति दिन संध्या के समय कहीं जाते हैं और जब वापस लौटते हैं तो उनके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली होती है।

राजा विक्रमादित्य ने एक शाम चुपके से राजा कीर्तिध्वज का पीछा तो उन्होंने देखा कि वह समुद्र में स्नान के पश्चात वहां स्थित मंदिर में एक देवी की मूर्ति की पूजा करते हैं और उसके पश्चात खौलते तेल की कड़ाही में कूद जाते हैं।

जब उनका शरीर जल जाता है तो योगिनियां आकर उनके शरीर को नोच कर खाती है और संतुष्ट होकर चली जाती है।

उसके पश्चात मंदिर में स्थित मूर्ति की देवी साक्षात प्रकट होकर उन पर अमृत की बूंदें बरसाती है जिससे राजा पुनः जीवित हो जाता है और वह देवी राजा को एक लाख सोने की मुद्राएं प्रदान करती है और राजा महल लौट आता है। राजा कीर्तिध्वज यही मुद्राएं प्रातः दान में देता था। अब राजा विक्रमादित्य राजा कीर्तिध्वज के एक लाख सोने की मुद्राएं दान करने का रहस्य जान चुके थे।

अगले दिन जब राजा कीर्तिध्वज स्वर्ण मुद्राएं लेने के लिए समुद्र पर स्थित मंदिर में पहुंचे तो राजा विक्रमादित्य भी उनके पीछे पीछे पहुंच गए। जब राजा कीर्तिध्वज ने देवी की पूजा अर्चना की, स्वयं को जलते हुए तेल में डाला, उसके पश्चात योगिनियां आई और देवी ने उन पर अमृत छिड़का और वह अपनी स्वर्ण मुद्राएं देवी से प्राप्त करने के पश्चात वापस लौट गए ।

 राजा विक्रमादित्य ने भी स्नान कर देवी की मूर्ति की आराधना की और जलते हुए तेल की कड़ाही में कूद पड़े। योगनियों ने आकर उनके शरीर को नोच कर खाया और चली गई। उसके पश्चात देवी ने उन पर अमृत की बूंदें छिड़काव कर जीवित कर दिया और उन्हें स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की । राजा विक्रमादित्य ने मुद्राएं लेने से मना कर दिया और कहने लगे कि आपकी कृपा ही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है।

 राजा विक्रमादित्य ने सात बार इस इस विधि को दोहराया। सातवीं बार देवी कहने लगी कि, पुत्र तुम मुझ से मनवांछित वर मांग सकते हो। वह यही तो चाहते थे कि देवी उन्हें मनवांछित फल मांगने के लिए कहे। देवी के मुख से मनवांछित वर मांगने की वाणी सुनकर राजा विक्रमादित्य ने उनसे वह थैली ही मांग ली जिससे स्वर्ण मुद्राएं निकलती थी। देवी ने उन्हें वह थैली प्रदान दी। 

देवी ने जैसे ही राजा विक्रमादित्य को स्वर्ण मुद्राएं प्रदान की वैसे ही देवी की प्रतिमा, मंदिर सब कुछ आलोप हो गया। अगले दिन जब राजा कीर्तिध्वज वहां देवी की पूजा अर्चना करने गया तो वहां सब कुछ गायब देखकर आश्चर्य चकित रह गया। राजा निराश होकर अपने महल लौट आया। उसका कई वर्षों से चला आ रहा एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दान करने का नियम अब पूर्ण नहीं हो पाया था। इसलिए राजा ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया और उनका शरीर क्षीण हो गया। 
राजा विक्रमादित्य से उनकी यह स्थिति देखी नहीं गई और वह राजा कीर्तिध्वज के पास पहुंचे और उनकी परेशानी का कारण जानना चाहा। 

राजा कीर्तिध्वज ने उन्हें सारी बात बता दी। उनकी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें स्वर्ण मुद्राओं वाली थैली सौंप दी। राजा विक्रमादित्य कहने लगे कि," आप को प्रतिदिन तपते तेल के कड़ाहे में कूदते देखकर मेरा हृदय द्रवित हो गया था। मैंने देवी को प्रसन्न कर स्वर्ण मुद्राओं वाली थैली प्राप्त कर ली। 

राजा विक्रमादित्य ने वह थैली राजा कीर्तिध्वज को सौंप दी और इस तरह अपने उस कथन का भी मान रख लिया जो उन्होंने नौकरी लेते समय कहा था कि, मैं वह कर सकता हूं जो कोई नहीं कर सकता।

राजा किर्तिध्वज को जब उनका वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उन्होंने राजा विक्रमादित्य को गले से लगा लिया और कहने लगे कि आप पृथ्वी के सबसे बड़े दानवीर है। आपने स्वर्ण मुद्राओं की थैली मुझे ऐसे दान कर दी जैसे वह कोई साधारण वस्तु हो। राजा विक्रमादित्य पुनः अपने राज्य लौट गए। 

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