रामचरितमानस चौपाई जब तें रामु ब्याहि घर आए हिन्दी अर्थ सहित
रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित है। इसकी चौपाइयों में मंत्र तुल्य शक्ति है। परम पूज्य संत श्री डोंगरे जी महाराज कहा करते थे कि किस घर में अयोध्या कांड की यह चौपाई पढ़ी और गाई जाती है वहां से दरिद्रता दूर भाग जाती है और घर में समृद्धि आती है।
JAB TE RAM BHAYAI GAR AAYE WITH MEANING IN HINDI
निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु,
जो दायकु फल चारि।।
भावार्थ - तुलसीदास जी कहते हैं कि," श्री गुरु के चरणों की रज से मैं अपने मन रूपी दर्पण को साफ कर श्री रघुबर जी के निर्मल यश का वर्णन करता हूं जो चारों फलों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को प्रदान करने वाला है।"
नित नव मंगल मोद बधाए।।
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।।
भावार्थ - जब से श्री राम जी सीता जी संग विवाह कर घर आये है तब से अयोध्या में नित नए मंगल हो रहे हैं और आंनद के बधावे बज रहे हैं। चौहदों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं।
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।।
भावार्थ - रिद्धि सिद्धि और संपत्ति रूपी सुहावनी नदियां अयोध्या रूपी सागर की ओर आ रही है। नगर के नर नारी उच्च जाति के मणियों के समान है जो सब प्रकार से पवित्र, अमोल और सुंदर है।
जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी।।
भावार्थ - अयोध्या नगरी का ऐश्वर्य का कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि मानो ब्रह्मा जी की कारीगरी बस इतनी ही है। अयोध्या के नर-नारी श्री राम चंद्र जी के मुखचंद्र को निहार कर सब प्रकार से सुखी है।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।
भावार्थ - सब माताएं और सखी-सहेली अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हो रही है। श्री राम जी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देखकर राजा दशरथ बहुत ही प्रमुदित हैं।
राजसभां रघुराजु बिराजा।।
सकल सुकृत मूरति नरनाहू।
राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।।
भावार्थ - एक समय रघुकुल नरेश राजा दशरथ समस्त समाज सहित राज्य सभा में विराजमान थे। राजा दशरथ समस्त पुण्यों की मूर्ति है, वह श्री राम का सुंदर यश सुनकर आनंदित हो रहे हैं।
लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।
तिभुवन वन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं।।
भावार्थ - सभी राजा उनकी कृपा की अभिलाषा रखते हैं और लोकपाल उनके रुख को रखते हुए प्रीति रखते हैं। तीनों भुवनों में (पृथ्वी, आकाश, पाताल) और तीनों कालों में राजा दशरथ के समान भाग्यशाली और कोई नहीं है।
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू।।
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा।
बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा।।
भावार्थ - मंगलों के मूल श्री राम जिनके पुत्र हैं उनके लिए जो कुछ भी कहा जाय सब थोड़ा ही है। राजा ने स्वाभाविक रूप से अपने हाथ में दर्पण ले लिया। उन्होंने उसमें अपना मुख देखकर मुकुट को सीधा किया।
मनहुं जरठपनु अस उपदेसा।।
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू।
जीवन जनम लाहु किन लेहू।।
भावार्थ - उन्होंने देखा कि उनके कानों के समीप सफेद बाल हो गये है, मानो बुढ़ापा उपदेश दे रहा हो कि राजन! श्री राम को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं ले रहें?
श्रीगुरु चरन सरोज रज,
निज मनु मुकुरु सुधारि।
रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड का यह दोहा तुलसीदास जी द्वारा रचित हनुमान चालीसा का भी प्रथम दोहा है।
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