श्री कृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई की कहानी
मीराबाई सोलहवीं शताब्दी की प्रसिद्ध कवियत्री और संत जी। मीरा बाई श्री कृष्ण की अनन्य भक्त थीं। मीराबाई का जन्म 1498 ई. में हुआ था।मीराबाई श्रीकृष्ण की परम भक्त थी। बचपन में ही उनके हृदय में कृष्ण भक्ति का बीज अंकुरित हो गया था।
मीराबाई जयंती 2023
हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की शरद पूर्णिमा तिथि को मीराबाई की जयंती के रूप में मनाया जाता है। मीराबाई का जन्म अश्विन पूर्णिमा के दिन संवत् 1561 को हुआ था। 2023 में मीराबाई की जयंती दिन शनिवार, 28 अक्तूबर को मनाई जाएगी।
मीराबाई का बचपन
मीराबाई का जन्म मेड़ता के राठौड़ राव दूदा के पुत्र रतन सिंह के घर पर कुड़की नामक गांव राजस्थान में हुआ था। मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। बचपन में ही उनके हृदय में कृष्ण भक्ति के भाव उत्पन्न हो गए थे।
जब मीराबाई छोटी थी उनके पड़ोस की किसी लड़की की शादी थी।जब उसका दूल्हा बारात लेकर आया तो मीरा ने अपनी मां से पूछा कि," मेरा दूल्हा कौन है?" मां ने श्री कृष्ण की मूर्ति की और मुस्कुराते हुए कह दिया कि,"यह तेरा पति है।" मां के वह शब्द मीरा के मन में मानो छप गए। वह उस मूर्ति के साथ खेलती रहती।
जब मीरा छोटी थी उनकी माता का निधन हो गया था। उनका लालन-पालन उनके दादा राव दूदा जी ने किया था। उनके घर में साधु संतों का आना-जाना लगा रहता था। वह भगवान विष्णु के बहुत बड़े उपासक थे। एक बार संत रविदास जी उनके घर पर अतिथि रूप में आए थे।संत रविदास जी मीराबाई के गुरु थे। मीराबाई रैदास को अपना गुरु स्वीकार करते हुए कहती हैं -
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
मीराबाई का विवाह
मीरा बाई का विवाह 1516 ई. में उदयपुर के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। ऐसा माना जाता है कि विवाह के समय भी वह श्री कृष्ण की मूर्ति मीराबाई के साथ ही थी। विवाह के पश्चात उन्होंने अपने पति भोजराज को भी बता दिया था कि, मेरा विवाह तो श्री कृष्ण के साथ पहले हो चुका है। मीरा बाई अपने पद कहती हैं कि -
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई
जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई
भोजराज ने उनकी श्री कृष्ण के प्रति भक्ति देखकर उनके लिए महल के पास ही एक मंदिर बनवा दिया था। 1521ई. में मीराबाई के पति भोजराज की मृत्यु एक युद्ध के दौरान हो गई। उनका परिवार चाहता था कि वह अपने पति के साथ सती हो जाए लेकिन मीराबाई ने सती होने से इनकार कर दिया क्योंकि वह तो हृदय से श्री कृष्ण को ही अपना पति स्वीकार कर चुकी थी।
पति की मृत्यु के पश्चात मीराबाई ने अब ज्यादा समय कृष्ण भक्ति में बिताना शुरू कर दिया मंदिर में जाकर वह कृष्ण भक्ति के गीत गाती और नाचती राज परिवार को यह बात रास नहीं आ रही थी। मीरा बाई के देवर विक्रमादित्य जब राजा बने तो उन्हें मीराबाई का साधू संतों के संग यूं नाचना गाना पसंद नहीं था। वह इसे राज परिवार की मर्यादा के खिलाफ समझते थे।
मीरा बाई को मारने के लिए षड्यंत्र रचे गए
विक्रमादित्य ने मीराबाई को जहर देकर मारने का प्रयास किया गया। मीराबाई उस प्याले को श्री कृष्ण का चरणामृत समझ कर पी गई और श्री कृष्ण की कृपा से मीरा बाई कोई कुछ नहीं हुआ।
इसके पश्चात मीराबाई को मारने के लिए टोकरी में सांप भेजा गया ताकि वह उसे डंस ले और मर जाए। लेकिन सांप शालीग्राम में परिवर्तित हो गया। वह शालीग्राम आज भी वृन्दावन में मीराबाई के मंदिर में स्थापित है।
मीरा बाई ने अपने पद में इसका वर्णन ऐसे किया है
सांप पेटारा राणा भेज्या, मीरा हाथ दीयों जाय।
न्हाय धोय देखण लागीं, सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमरित दीन्ह बनाय।
न्हाय धोय जब पीवण लागी, हो गई अमर अंचाय।
मीराबाई का तुलसीदास जी को पत्र लिखना
जब उनके परिवार का वालों के उन पर आरोप और उनके प्रति अत्याचार बढ़ने लगे तो उन्होंने तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा कि मुझे कृष्ण भक्ति से दूर किया जा रहा है आप ही मेरा मार्गदर्शन करें। मीराबाई ने लिखा -
स्वस्ति श्रीतुलसी गुण भूषण ,दूषण हरण गुसाई ।
बारहि बार प्रणाम करहुँ , हरे शोक समुदाई ।।
घरके स्वजन हमारे जेते , सबहि उपाधि बढ़ाई ।
साधु संग अरु भजन करत मोंहि देत कलेस महाई ।।
बालपने ते मीरा कीन्ही गिरिधर लाल मिताई ।
सो तो अब छूटै नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई ।।
मेरे मात पिता सम हौ हरि भक्तन समुदाई ।
हम कूँ कहा उचित करिबो है सो लिखिए समुझाई ।
तुलसीदास जी ने मीरा बाई के पत्र के जवाब में विनय पत्रिका का दोहा लिखकर भेजा कि-
जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही ।।
तुलसीदास जी का पत्र पढ़कर मीराबाई ने मेवाड़ छोड़ने का निश्चय कर लिया और वह कृष्ण भक्ति में लीन होकर साधू-संतों के संग तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ी।
मीराबाई का वृन्दावन में जीव गोसाईं से मिलना
जब वह वृन्दावन पहुंची तो उन्होंने जीव गोसाईं जी से मिलने के लिए पत्र भेजा। जीव गोसाईं ने कहलवाया कि मैं स्त्रियों से नहीं मिलता। मीरा बाई जी ने पुनः एक पत्र लिखकर भेजा और कहा कि वह तो समझती थी कि वृन्दावन में पुरुष केवल श्री कृष्ण है बाकी सब तो जीव तो उनकी गोपी है। मुझे आज पता चला कि वृन्दावन में श्री कृष्ण के सिवाय आप भी एक पुरुष है। मीरा बाई की ज्ञान भरी बातें पढ़कर उनका संशय दूर हुआ और उन्होंने मीरा बाई मिलने की हामी भर दी। मीरा बाई बहुत वर्षों तक वृन्दावन में रही। वृन्दावन में आज भी वह मंदिर है जहां पर मीरा बाई ने अपने कुछ वर्ष श्री कृष्ण की भक्ति करते हुए बिताएं थे।
वृन्दावन की महिमा में मीरा बाई का भजन है-
लागे वृन्दावन नीको,
आली मोहे लागे वृन्दावन नीको।
घर घर तुलसी ठाकुर सेवा,
दर्शन गोविन्द जी को,
आली मन लागे वृन्दावन नीको।
मीराबाई की मृत्यु
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मीराबाई वहां से द्वारिका चली गई। ऐसी किंवदंती है कि जब उदय सिंह गद्दी पर बैठे तो उन्होंने मीराबाई को चितौड़ लौट आने के लिए ब्राह्मणों को भेजा। मीराबाई राजमहल वापस लौटना नहीं चाहती थी क्योंकि उन्होंने प्रण लिया था कि वह श्री कृष्ण के सिवाय और किसी से कोई संबंध नहीं रखेगी। मीराबाई ने ब्राह्मणों को उनके साथ वापस लौटने पर असमर्थता जताई।
ब्राह्मणों ने कहा कि अगर आप नहीं चली तो हम अन्न जल त्याग देंगे। यह देखकर मीराबाई ने कहा कि वह अगली सुबह उनके साथ चलेगी। कहते हैं कि सुबह जब वह श्री कृष्ण की मूर्ति के दर्शन करने गई तो उसमें समा गई उनका चीर श्री कृष्ण की मूर्ति के साथ लिपटा हुआ था।
मीराबाई के गाएं हुएं पद आज भी भक्ति की लौ को जगातेहैं। उनके पद शाश्वत प्रेम और भक्ति से ओत-प्रोत है।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएं
राग गोविंद
गीत गोविन्द
नरसी जी का मायरा
राग सोरठा
गोविंद टीका
मीरा पद्यावली
मीराबाई के पदों राजस्थानी, ब्रज भाषा और गुजराती भाषा का समावेश है। श्री कृष्ण की भक्ति और विरहा वेदना में गाएं गए उनके पद और भजन सरस , मधुर और भावपूर्ण है।
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