SHRIMAD BHAGWAT 2 ADHYAY SANSKRIT SHLOK WITH HINDI MEANING

SHRIMAD BHAGWAT 2 ADHYAY CHAPTER 2 SANSKRIT SHLOK WITH HINDI MEANING श्रीमद भगवद गीता दूसरा अध्याय - सांख्य योग 

श्रीमद भगवद गीता दूसरा अध्याय - सांख्य योग 

श्रीमद् भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का पहला श्लोक संजय ने बोला है 

संजय उवाच 

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ (१)

भावार्थ- संजय ने कहा - करुणा से अभिभूत, शोक युक्त अर्जुन के अश्रुओं से भरे नेत्रों को देखकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह वाक्य कहे। 

इस श्लोक में श्री कृष्ण को मधुसूदन कहा गया है क्योंकि उन्होंने मधु नामक दैत्य का वध किया था। अर्जुन इस समय शोक संतप्त था इसलिए वह श्री कृष्ण की शरण में चला गया।

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। (२)

भावार्थ - श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! तुम्हारे हृदय में यह कुलषित विचार कैसे आएं? अर्थात तुम्हारे मन में अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ। यह आचरण उस व्यक्ति के लिए उचित नहीं है जो व्यक्ति जीवन के मुल्यों को जानते हैं। तुम्हारे इस कृत्य से स्वर्ग की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तुम्हारे इस कृत्य से अपयश प्राप्त होगा क्योंकि अर्जुन एक क्षत्रिय था। लेकिन अर्जुन युद्ध में अपने स्वजनों को देखकर अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था।

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ (३)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा हे अर्जुन! तुम इस नपुंसकता को प्राप्त मत होओ ऐसा कृत्य तुम को शोभा नहीं देता है। हे शत्रुओं को मारने वाले! हृदय की क्षुद्र‌ दुर्बलता का त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। 

अर्जुन के हृदय की दुर्बलता को देखकर श्री कृष्ण उसे समझा रहे हैं कि उसका यह कार्य निंदनीय है। अर्जुन अपने स्वजनों को देखकर युद्ध का विचार त्याग कर बैठ जाता है और श्री कृष्ण उसके हृदय की दुर्बलता को दूर करने के लिए उसे समझा रहे हैं।

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।

इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ (४)

भावार्थ- अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! हे शत्रु के संहारक! मैं युद्धभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के समान पूज्यनीय लोगों पर पलट कर प्रहार कैसे कर सकूंगा?

अर्जुन यहां दुविधा में हैं कि वह युद्ध में अपने पितामह और गुरूओं पर उलट कर प्रहार कैसे करेगा। उसे यह कार्य निंदनीय लग रहा था।

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥ (५)

भावार्थ- अर्जुन ने कहा-  ऐसे महानुभावों को जो मेरे गुरु हैं,  उन्हें मारकर जीने से अच्छा है मैं इस लोक में भिक्षा माँग कर खा लूं। क्योंकि गुरुजनों का युद्ध में उनका वध होगा तो इस संसार में भोगी जाने वाली हर वस्तु उनके खून से सनी होगी।

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥(६)

भावार्थ- अर्जुन ने कहा - हमें नहीं पता कि हमारे लिए श्रेष्ठ क्या है ? युद्ध करना या युद्ध न करना या फिर हम जीत जाए या फिर उनके द्वारा हमें ही जीतना। धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हम जीवित रहना नहीं चाहेंगे, फिर भी वे हमारे सामने युद्ध में खड़े हैं। 

अर्जुन समझ नहीं पा रहा था कि उसे युद्ध करना चाहिए या नहीं। क्योंकि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म था। लेकिन वह दुविधा में था कि युद्ध में अगर वह जीत जाता है तो धृतराष्ट्र के पुत्रों के मरने पर उनके बिना उसको जीवित रहना कठिन लग रहा था। दूसरे युद्ध में जीत किस पक्ष की होगी यह भी निश्चित नहीं था।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः 
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ (७)

भावार्थ - अर्जुन ने कहा - मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपने स्वभाविक गुण भूल गया हूंँ । मैं इस समय मोहित हो गया हूंँ। मैं आपनी इस स्थिति में आप से पूछ रहा हूँ कि जो भी साधन मेरे लिये श्रेयस्कर हो उसे विश्वासपूर्वक मुझे समझाएं। मैं आपका शिष्य आपकी शरण में आया हूंँ, कृपया आप मुझे उपदेश दीजिये।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्-
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥ (८)

भावार्थ- अर्जुन ने कहा - मुझे ऐसा कोई साधन नही दिख रहा जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को मिटा कर सके, स्वर्ग पर देवताओं के राज्य के समान इस समृद्ध पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त करके भी मैं शोक को पूरा नहीं कर सकूंगा। 

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप: ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ (९)

भावार्थ - संजय ने कहा -  इस प्रकार कहने के पश्चात शत्रु का नाश करने वाले अर्जुन ने इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण से कहा हे गोविंद! मैं युद्ध नहीं लडूंगा ऐसे बोलकर वह चुप हो गया।

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ (१०)

भावार्थ-संजय ने कहा - हे भरतवंशी! दोनों पक्षों की सेनाओं के बीच शोक में ग्रस्त अर्जुन से श्रीकृष्ण ने हँसते हुए से यह वचन कहे।

श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥ (११)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे अर्जुन! तुम पाण्डित्यपूर्ण बातें करके उनके लिये शोक कर रहे हो, जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वें न तो जीवित के लिए और न ही मृत प्राणी के लिये शोक ग्रस्त होते है। 

यहां श्री कृष्ण व्यंग्यात्मक शब्दों में अर्जुन को पंडित कह कर संबोधित कर रहे हैं क्योंकि वह शोक में था और श्री कृष्ण उसे समझा रहे हैं कि विद्वान पुरुष किसी भी परिस्थिति में शोक नहीं करते।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ (१२)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - ऐसा कभी नहीं हुआ किसी काल में मैं नहीं था, या तू नहीं रहे हो अथवा ये सारे राजा कभी ना रहे हो और न ऐसा ही होगा कि आने वाले भविष्य में हम सब लोग नहीं रहेंगे।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जैसे जीवधारी आत्मा शरीर में बाल्यावस्था से युवा अवस्था और तत्पश्चात वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, वैसे ही शरीर की मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाती है, ऐसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोहित नहीं होते हैं।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ (१४)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे कुंतीपुत्र! सुख और दुःख का क्षणिक उदय तथा समय के साथ उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने जाने के जैसा हैं। इसलिए हे भरतवंशी! वें केवल इन्द्रिय बोध से पैदा होते हैं, पुरुष को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न करें।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ (१५)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे पुरुष श्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष दुःख तथा सुख में भी विचलित नहीं होते और दोनों परिस्थितियों में समभाव रहते है, वह धीर पुरुष निश्चित रुप से मुक्ति के अधिकारी है। 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ (१६)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - तत्वदर्शीयों के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि असत्‌ (शरीर) का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है और सत्‌(आत्मा) अपरिवर्तित है। उन्होंने सत् असत् की प्रकृति के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ (१७)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा- जो सम्पूर्ण शरीरों में व्याप्त है उसे तुम अविनाशी समझो , इस अव्यय आत्मा का नाश करने का समर्थ किसी में नहीं है।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ (१८)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा-  इस अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत देहधारी शरीर नष्ट अवश्य होता हैं, अत: हे भरतवंशी! तू युद्ध कर।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ (१९)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - जो इस जीवात्मा को मारने वाला मानता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि आत्मा न तो किसी को मारता है और न उसे किसी द्वारा मारा जाता है। ‌

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ (२०)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - आत्मा का न तो किसी काल में जन्म हुआ और न ही  मृत्यु। वह ना तो किसी काल जन्मा, न ही जन्म लेता है और ही जन्म लेगा। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मरने पर भी वह नहीं मारा जा सकता है।

 वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥ (२१)

भावार्थ : श्री कृष्ण ने कहा - हे पृथापुत्र! जो व्यक्ति यह समझता है कि आत्मा- अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय है, वह पुरुष कैसे किसी को मार सकता है या फिर मरवा सकता है?

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
 नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
 न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा जीर्ण शरीरों को त्याग कर नवीन शरीरों को धारण करता है। 

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (२३)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - आत्मा को न तो किसी शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही अग्नि के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है अर्थात आत्मा अजर-अमर और शाश्वत है।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ (२४)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - यह आत्मा अटूट है और अघुलनशीलन है। आत्मा को ना ही जलाया जा सकता है, ना ही सुखाया जा सकता है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदा एक समान रहने वाला है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ (२५)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - यह आत्मा अव्यक्त, अचिंतनीय और अपरिवर्तनीय है। इस आत्मा को विकार रहित जानकर तुम को शोक नहीं करना चाहिए है।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ (२६)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - किन्तु अगर तुम इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मृत्यु को प्राप्त होने वाला मानता हो, तब भी हे महाबाहु! तुम्हारे इस प्रकार शोक करने का कोई  कारण नहीं है।

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (२७)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुनर्जन्म  निश्चित है, अत: इस अपरिहार्य घटना पर शोक नहीं करना चाहिए।

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ (२८)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे भारत! सम्पूर्ण जीव जन्म से पहले अव्यक्त रहते है मध्य में प्रकट होते हैं,‌‌ और मरने के बाद पुनः अव्यक्त हो जाने वाले हैं। अत: इसमें शोक करने की कोई आवश्यकता नही है।

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
 माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
 श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥ (२९)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई-कोई तो इसके विषय में सुनकर भी कुछ जान नहीं पाते है।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ (३०)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे भारत! सबके देह में देही (आत्मा) सदा अवध्य है अत: तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की नहीं करना चाहिए।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे अर्जुन! क्षत्रिय होने के नाते तुम को अपने क्षत्रिय धर्म का ज्ञान होना चाहिए कि क्षत्रिय धर्म के लिए युद्ध करने के बढ़कर अन्य कोई कर्तव्य नहीं है । अतः तुमको युद्ध करने से संकोच नहीं करना चाहिए।

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥ (३२)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - हे पार्थ! वें क्षत्रिय सुखी है जिनको  ऐसे युद्ध के अवसर स्वयं प्राप्त हो जाते है इससे उनके लिये स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते है। 

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (३३)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - किन्तु यदि तू युद्ध करने के स्वधर्म को नहीं करेगा तो तू योद्धा के रुप से अपने यश खो देगा और तुम पर अपने कर्तव्य कर्म की उपेक्षा करने का पाप लगेगा।

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥ (३४)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - लोग सदैव तुम्हारी अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी कही बढ़कर है।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥ (३५)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - जिन-जिन योद्धाओं ने तुम्हें पहले  सम्मानित किया है, वे महारथी सोचेंगे कि तुम ने डर के कारण युद्ध-भूमि छोड़ दी वें इस तरह तुम को तुच्छ मानेंगे।

अवाच्यवादांश्च बहून्व‌दिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥ (३६)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य का उपहार करते हुए तुम्हें अनेक प्रकार के कटु वचन भी कहेंगे, तुम्हारे लिये इससे अधिक दु:खदायी और क्या हो सकता है?

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ (३७)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - हे कुन्तीपुत्र! यदि तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त करेंगे और यदि तुम युद्ध में विजयी हो गये तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अत: तुम दृढ संकल्प करके खड़ा हो जाओ और युद्ध करो।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ (३८)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - तुम सुख या दुःख, हानि या लाभ और विजय या पराजय के विचार को त्याग कर युद्ध के लिये ही युद्ध करो, ऐसा करने से तुम पाप नहीं लगेगा।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ (३९)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - हे पृथापुत्र यहां मैंने सांख्य योग के द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम कर्म-योग के विषय बता रहा हूं, तू उसे सुन, यदि तू इस ज्ञान से कर्म करेगा तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकेगा। 

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥ (४०)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - इस तरह कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही ह्रास होता है, अपितु इस पथ पर की गई की थोडी़ सी भी प्रगति जन्म मृत्यु के महान भय से रक्षा कर सकती है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ (४१)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे कुरुनन्दन! जो इस निष्काम कर्म-योग के मार्ग पर चलते है में दृढ़ प्रतिज्ञ होते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है, किन्तु जो दृढ़ प्रतिज्ञ नही है उनकी बुद्धि अनन्त शाखाओं में विभक्त रहती हैं।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ (४२)
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (४३)

भावार्थ : श्री कृष्ण ने कहा - अल्प-ज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते है, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिये अनेक सकाम कर्म फल की संस्तुति करते है, भोग (इन्द्रियतृप्ति) और ऐश्वर्यमय पूर्ण जीवन की इच्छा के कारण उन्हें उससे बढ़कर कुछ नहीं लगता।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (४४)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जो मनुष्य इन्द्रिय भोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति ज्यादा आसक्ति होते हैं वें ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, ऐसे मनुष्यों में ईश्वर के प्रति दृढ निश्चय नहीं होता है।

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ (४५)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे अर्जुन! वेदों में मुख्य रुप से प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन किया गया है। इसलिए तू समस्त द्वैतों, लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ (४६)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जैसे एक छोटे से कूप का समस्त कार्य विशाल जलाशय से पूर्ण हो जाता है, वैसे ही  ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का प्रयोजन सिद्ध हो जता है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - तेरा अपने कर्म करने में ही अधिकार है, किन्तु उसके फलों के तुम अधिकारी नहीं हो, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और ना ही अपने कर्म न करने में तेरी आसक्ति हो। 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ (४८)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे धनंजय! तू जय तथा पराजय में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित होकर अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर। ऐसी समता ही योग कहलाती है।

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ (४९)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे धनंजय! इस समत्व बुद्धि-योग के द्वारा समस्त निन्दनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ईश्वर की शरण-ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहने वाले व्यक्ति कृपण होते है।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥ (५०)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - भक्ति में लगा मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पाप कर्मों से मुक्त कर लेता है। अत: तू इसी योग के प्रति प्रयास करो, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता-पूर्वक पूर्ण होते हैं।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥ (५१)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - इस प्रकार भगवद् भक्ति से ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के चक्रों से मुक्त जाते हैं। वह उस परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं जो समस्त दुःखों से परे है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ (५२)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - जिस समय तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी घने वन को भली भाँति पार कर जाएगी, तब तुम सुने हुए और सुनने योग्य सभी भोगों से विरक्त हो जाओगे।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ (५३)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जब तुम्हारा मन वैदिक ज्ञान के वचनों को सुनने से विचलित न हो तथा तू आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थित हो जाए तब तुम्हारी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जाएगी।

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥ (५४)

भावार्थ-  अर्जुन ने कहा - हे केशव! अध्यात्म में लीन स्थिर-बुद्धि वाले पुरुष के क्या लक्षण है? वह पुरुष कैसे बोलता है? उसकी भाषा क्या है? वह कैसे बैठता है ? और किस प्रकार चलता है?

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ (५५)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे पार्थ! जब पुरुष मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय तृप्ति की समस्त प्रकार की कामनाओं त्याग कर देता है तब इस प्रकार विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तब वह विशुद्ध चेतना को प्राप्त कर स्थिरप्रज्ञ कहलाता है। 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (५६)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - जो दुःखों की प्राप्ति होने भी मन में विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति से प्रसन्न नही होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त हैं, ऐसा स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ । 
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५७)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - इस भौतिक संसार में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर द्वेष करता है, ऐसा व्यक्ति पूर्ण ज्ञान मे स्थिर होता है।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (५८)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - जिस तरह ‌कछुवा सब ओर से अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर समेट लेता है, उसी प्रकार जब मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में दृढ़ता से स्थिर होता है।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ (५९)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - देह धारी मनुष्य इन्द्रियों के भोग से भले निवृत्त हो जाय लेकिन उनमें इन्दियभोगों की आसक्ति बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस का अनुभव वह ऐसे कार्य ना करके भक्ति में स्थित हो जाता है।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ (६०)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है वें उस विवेकी व्यक्ति के मन को भी बल पूर्वक हर लेती है।

 तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६१)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जो व्यक्ति इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वही व्यक्ति स्थिर-बुद्धि वाला कहलाता है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ (६२)

भावार्थ : श्री कृष्ण ने कहा - इन्द्रियविषयों का मनन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध उत्पन्न होता है

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ (६३)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है। जब स्मरण-शक्ति में भ्रमित हो जाती है तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (६४)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - किन्तु सभी राग-द्वेष से मुक्त रहने एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश‌ में करके समर्थ पुरुष ईश्वर की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ (६५)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण भौतिक दुःखों का नाश हो जाता है और ऐसी चेतना वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही परमेश्वर में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ (६६)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जो मनुष्य कृष्णभावनामृत में ईश्वर से जुड़ा नहीं है उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है इनके बिना न ही शान्ति प्राप्त होती है और शान्ति के बिना मनुष्य को सुख भी कैसे संभव है?

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (६७)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - जैसे पानी में तैरने वाली नाव को प्रचंड वायु दूर बहा कर ले जाती है, उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह ही मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (६८)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - हे महाबाहु! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (६९)

भावार्थ-  श्री कृष्ण ने कहा - जो सभी जीवों के लिये रात्रि है, वह आत्म संयमी व्यक्ति के लिये जागने का समय है और जो समस्त जीवों के लिये जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए रात्रि समान है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
 समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे 
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ (७०)

भावार्थ- श्री कृष्ण ने कहा - जैसे अनेकों नदियाँ के सभी ओर से समुद्र को विचलित किए बिना निरंतर समुद्र में प्रवेश करती रहती है। वैसे ही जो स्थित-प्रज्ञ मनुष्य इच्छाओं से विचलित नहीं होता। वही मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त होता है, ना कि ऐसी इच्छाओं का सुख चाहने वाला। 

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ (७१)

भावार्थ -‌श्री कृष्ण ने कहा - जिस मनुष्य ने समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग दिया है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ (७२)

भावार्थ - श्री कृष्ण ने कहा - हे पार्थ! यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करने पर मनुष्य को क

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