श्री कृष्ण के भक्त नरसी मेहता जिन्होंने किए थे रासलीला के दर्शन
नरसी मेहता भगवान श्री कृष्ण (lord Krishna) के परम भक्त और गुजरात साहित्य के आदि कवि थे। उनका जन्म 1414 ई. में गुजरात के जूनागढ़ में तलाजा ग्राम में हुआ। बचपन में ही इनके माता-पिता का देहांत हो गया था। बचपन में इनका पालन-पोषण इनकी दादी ने किया था।
कृष्ण भक्ति का मंत्र
Narsi Mehta Ki Katha:कहते हैं कि आठ साल की आयु तक इन्होंने बोलना शुरू नहीं किया था। एक बार यह अपनी दादी के साथ भगवद् कथा सुनकर आप रहे थे। रास्ते में दादी को एक संत मिले। दादी ने संत को इनके ना बोलने के बारे में बताया। संत ने नरसी के कान में श्री कृष्ण का मंत्र बोला। उसके पश्चात उन्होंने बोलना शुरू किया। तभी से नरसी के मन में कृष्ण भक्ति का बीज अंकुरित हो गया। दादी के देहांत के पश्चात वह अपने भाई भाभी के साथ रहने लगे।
नरसी मेहता अधिक समय साधू-संतों संग भजन कीर्तन में बिताते थे। घर के काम में ज्यादा हाथ नहीं बंटाते थे। उनकी भाभी बहुत कठोर स्वभाव की थी। एक दिन उन्होंने ताना मारा कि तुम्हारी भक्ति इतनी ही सच्ची है तो भगवान से मिलकर आओ।
नरसी मेहता का भगवान शिव के साक्षात दर्शन करना
भाभी की बात नरसी मेहता के मन को लग गई और वह घर बार छोड़ कर दूर जंगल में चले गए। उन्होंने जंगल में स्थित मंदिर में शिवलिंग को अपनी बांहों से भर कर संकल्प लिया कि जब तक भगवान शिव मुझे स्वयं दर्शन नहीं देंगे। तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करुंगा। अपने इस संकल्प पर अडिग रहते हुए उन्होंने सात दिन तक भोजन ग्रहण नहीं किया और भगवान का स्मरण करते रहे।
भगवान शिव(lord shiva) उसकी भक्ति से प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन देकर वर मांगने के लिए कहा। नरसी मेहता ने कहा कि," प्रभु यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो अपनी सबसे प्रिय वस्तु मुझे दे।"
भगवान शिव का नरसी मेहता को श्री कृष्ण की रास के दर्शन करवाना
भगवान शिव उसकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और कृष्ण प्रेम प्रदान किया। वह उसे अपने समान सुंदर सखी स्वरुप देकर श्री कृष्ण के गोलोक स्थित वृन्दावन ले गए।
उन्होंने नरसी सखी को रासलीला में मशाल दिखाने की सेवा दी। रासमंडल में अनगिनत सखियों के संग श्री राधा कृष्ण की अद्भुत रासलीला देखकर वह भाव विभोर हो गए।
नरसी सखी को देखकर श्री कृष्ण जान गए कि आज शिव जी के संग कोई नई सखी रासलीला देखने आई है। रास के पश्चात भगवान शिव ने नरसी सखी को वापस जाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि मैं तो राधा मोहन पर अपने प्राण न्यौछावर करना चाहती हूं।
भगवान श्री कृष्ण ने नरसी सखी को अपनी भक्ति रस का पान कराया और उन्हें दिव्य करताल देते हुए आज्ञा दी कि जैसी रासलीला का तुम ने दर्शन किया है उस का गुनगान करो। पृथ्वी के नर-नारियों को भक्ति रस का पान कराओ। तुम जब भी मुझे स्मरण करोंग ,मैं तुम को दर्शन देने आऊंगा।
नरसी मेहता ने अपनी भाभी को अपना गुरु मान लिया क्योंकि उनके कटु वचनों के कारण ही वह घर छोड़ कर गए। जिस कारण उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए और उन्हें श्री राधा कृष्ण की अनुपम रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
तपस्या पूरी होने पर वह भगवान की आज्ञा से वापस लौट आए और अपनी पत्नी और बच्चों सहित अलग रहने लगे। भगवान श्री कृष्ण की दी हुई करताल से वह श्री कृष्ण का गुणगान करते रहते। उनकी पत्नी ने उन्हें कोई काम करने के लिए कहा। लेकिन उनका भगवान के भजन के सिवाय किसी काम में मन नहीं रमता था। श्री कृष्ण ने प्रति उनकी भक्ति इतनी अटूट थी कि उनका मानना था कि वह ही उनके सारे अभाव दूर करेंगे। श्री कृष्ण ने समय-समय पर अपने भक्त के काम स्वयं किए।
पितृ भोग पर श्री कृष्ण का नरसी रूप लेकर आना
Naarsi Mehta ki story:एक बार नरसी मेहता की जाति के लोग कहने लगे कि तुम को अपने पिता के श्राद्ध का भोज कराना चाहिए। श्री कृष्ण की कृपा से सारा इंतजाम हो गया। लेकिन घर में घी कम था जब घी लेने गए तो रास्ते में साधू-संतों की टोली संग भजन कीर्तन करने में रम गए।
जब उन्हें घर का ध्यान आया तो रात हो चुकी थी और घर पर रखे भोज का ध्यान आया। घर जाकर उन्होंने पत्नी से देर से लौटने के लिए क्षमा मांगी। पत्नी कहने लगी कि," आप कैसी बातें कर रहे हैं? आप ने ही तो स्वयं अपने हाथों से सभी को भोज करवाया था।" नरसी मेहता समझ गए कि मैं जिसके भजन में मग्न था वहीं स्वयं मेरा रूप धारण कर सब काम कर गया है।
नरसी मेहता की हुंडी Narsi Mehta Ki Hundi
एक बार कुछ भक्तों को द्वारिका जाना था। वह पूछने लगे कि आपके नगर में कोई है जो द्वारिका में पांच सौ रूपए की हुंडी लिख दें। कुछ शरारती लोगों ने उन्हें नरसी मेहता का पता बता कर कहा कि उनकी द्वारिका में बहुत प्रसिद्धी है।
वह तीर्थ यात्री नरसी मेहता के पास आकर कहने लगे कि," आप पांच सौ रूपए की हुंडी लिख दो। हम वहां जाकर हुंडी ले लेंगे।" नरसी कहने लगे कि वहां मेरी पहचान का कोई नहीं है लेकिन जब तीर्थ यात्री नहीं माने तो उन्होंने द्वारकाधीश शामलशाह के नाम की हुंडी पर लिख दी।
द्वारिका पहुंच कर यात्रियों को शामलशाह नाम का कोई सेठ नहीं मिला तो उन्हें चिंता सताने लगी। अब वह सोचने लगे कि हमें वापस नरसी मेहता के पास जाना पड़ेगा। तब श्री कृष्ण ने स्वयं शामलशाह का भेष धारण कर भक्तों को हुंडी के पैसे दिए। नरसी मेहता को जब भक्तों से पैसे मिलने के बारे में पता चला कि वह समझ गए कि श्री कृष्ण ने उनका मान रख लिया।
छूआछूत में विश्वास ना करना
नरसी मेहता छुआछूत को नहीं मानते थे। वह हरिजनों के साथ बैठकर भजन कीर्तन और भोजन करते थे। वह बात उनकी बिरादरी को पसंद नहीं थी। लेकिन इस बात का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उनकी बिरादरी ने उनका बहिष्कार कर दिया। नरसी मेहता का मानना था कि -
वैष्णव जन तो तेने कहीये,
जे पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तो ये,
मन अभिमाण न आणे रे।
नरसी मेहता का भात Narsi Mehta Ka Baat
नरसी मेहता की पुत्री नानी की पुत्री सुलोचना का विवाह तय हुआ तो नानी बाई के ससुराल वालों के मन में शंका थी कि इसके पिता गरीब है इसलिए वह शादी का भात नहीं भर पाएंगे ? लेकिन उनके ससुराल वालों ने शादी के सामान की एक लंबी लिस्ट बनकर भेज दी। नरसी मेहता को इस बार भी विश्वास था कि श्री कृष्ण उनकी लाज जरूर रखेंगे।
नरसी जी एक संतों की टोली और एक सेठ के साथ वहां पहुंचे। ऐसा मायरा इससे पहले कभी किसी ने नहीं देखा था और ना सुना था। कहते हैं कि नानी बाई के ससुराल वालों के सामने 12 घंटे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा होती रही।
पूरा गांव हैरान था कि यह सेठ नरसी जी की मदद क्यों कर रहा है ? किसी ने जिज्ञासा वश पूछ ही लिया कि भाई तुम इस कंगाल नरसी की इतनी सहायता क्यों कर रहे हो?
सेठ बोला कि नरसी का मुझ पर अधिकार चलता है , जब यह मुझे बुलाते हैं मैं दौड़ा चला आता हूं। इनके काम करना मेरा कर्तव्य है। सेठ की बातें किसी ओर की समझ में चाहे ना आई हो लेकिन नानी बाई समझ गई कि उनके पिता के आराध्य श्री कृष्ण की ही यह सारी लीला है।
इसलिए तो संत कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति ऐसी करो कि कष्ट तुम पर हो और फ्रिक्र ईश्वर को हो कि इसको दूर कैसे करना है।
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