गुरु और शिष्य की प्रेरणादायक कहानियां
गुरु का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। गुरु हमारी अंधकार रूपी अज्ञानता को दूर करता है। हमारे धर्म ग्रंथों में गुरु को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। महर्षि वेदव्यास जी द्वारा रचित गुरु गीता के श्लोक के अनुसार-
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
भावार्थ - गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु शंकर है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म(परमगुरु) है ,ऐसे सद्गुरु को प्रणाम।
गुरु अपने शिष्य की अज्ञानता का नाश कर उसके सभी भ्रम दूर करता है। उसको ज्ञान की नई राह दिखाता है। गुरु हमारे जीवन को एक दिशा प्रदान करता है। हमारा भटकाव समाप्त हो जाता है और हमारे जीवन को एक उचित दिशा में ले जाता है। सच्चे गुरु के संपर्क में आने से व्यक्ति संस्कारवान, विनयी और विनम्र हो जाता है। अपने अवगुणों को जानकर उनसे छूटकारा पाने के लिए दृढ़ संकल्प हो जाता है। इस आर्टिकल में पढ़ें गुरु और शिष्य की प्रेरणादायक कहानियां जो जीवन में गुरु के महत्व को दर्शाती है।
Guru Shishya Ki Kahani:
एक बार एक गुरु जी अपने शांत और सौम्य स्वभाव के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। लेकिन उनके एक शिष्य बहुत ही क्रोधी स्वभाव का था। वह अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रख पाता था जरा सी बात पर झगड़े और गाली-गलौच पर उतर आता था।
इसलिए उसे अपने गुरु के शांत स्वभाव पर भी बड़ा आश्चर्य होता था कोई इतना शांत कैसे रह सकता है ? वह यह रहस्य जानना चाहता था लेकिन संकोचवश पूछ नहीं पाता था। लेकिन गुरु ने जान लिया था कि इसके मन में कोई शंका है जिसका समाधान करना चाहिए।
गुरु ने उससे पूछ लिया कि अगर तुम मुझ से कुछ पूछना चाहते हो तो बेझिझक पूछ सकते हो।शिष्य ने कहा, "गुरु जी मैं जानना चाहता हूं, कि आपको कभी क्रोध क्यों नहीं आता"? आप इतने शांत कैसे रहते हैं?
गुरु जी ने कहा कि तुम संध्या को मेरे पास आना मैं तब तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा और साथ ही तुम्हारे भविष्य के बारे में भी बताऊंगा। शिष्य ने गुरु को प्रणाम कर विदा ली।
संध्या को वह पुनः गुरु के समक्ष उपस्थित हो गया। गुरु गंभीर स्वर में बोले कि मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने से पहले तुम्हारे भविष्य के बारे में बताना चाहता हूं। तुम्हारा जीवन के केवल सात दिन शेष बचे है। इसलिए पहले तुम जाओ और वह कार्य कर लो जो तुम को लगता है कि तुम्हें तुम्हारी मृत्यु से पूर्व कर लेने चाहिए।
शिष्य गुरु को प्रणाम कर चल पड़ा और छः दिन के पश्चात फिर से अपने गुरु के पास पहुंचा। गुरु ने पूछा कि बताओ इन छः दिनों में तुम ने कितने लोगों के साथ गुस्सा और गाली-गलौच किया।
शिष्य गंभीरता पूर्वक स्वर में कहने लगा कि," गुरू देव मैंने सोचा कि अब मेरे जीवन के केवल सात दिन शेष बचे है इसलिए मैंने सबसे विनम्रतापूर्वक बात की। क्रोध आने पर भी धैर्य को बनाएं रखा। जहां तक कि जिन लोगों से मैंने पूर्व में बुरा बर्ताव किया था उनसे क्षमा मांगी। कुछ लोगों ने क्षमा कर दिया और कुछ ने नहीं।"
गुरु मुस्कुराते हुए बोले- अब शायद तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। शिष्य ने आश्चर्य भरी निगाहों से गुरु की ओर देखा। गुरु देव कहने लगे कि मैं जीवन के प्रत्येक दिन को अपना अंतिम दिन मानकर ईश्वर का ध्यान करता हूं और किसी पर भी क्रोध नहीं करता।
अब तो तुमने स्वयं भी इस बात का अहसास कर लिया है। जब तुम्हें लगा कि तुम्हारे जीवन के कुछ दिन ही शेष रह गए हैं तो तुम्हारा सारा क्रोध शांत हो गया। तुम्हें लगा कि जीवन को शुभ कर्मों में लगाना चाहिए और किसी से क्रोध और लड़ाई झगड़ा नहीं करना चाहिए।
उस दिन से उस शिष्य का जीवन पूर्णतया बदल गया। उसका स्वभाव अब शांत और विनम्र हो चुका था। इसलिए तो कबीर जी कहते हैं कि -
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
GURU SHISHYA STORY IN HINDI:
एक बार एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों ही काम से जी चुराया करते थे। गुरु इस बात से भलीभाँति परिचित थे। एक बार कडाके की सर्द रात में बारिश होने लगी। बाहर बंधी गाय के रंभाने की आवाज सुनकर गुरु ने अपने शिष्यों को कहा कि गाय को अंदर ले आओ।
शिष्य चालाकी दिखाते हुए बोले कि बंधनों से मुक्त तो गुरु करता है। हम तो स्वयं मोह माया के बंधनों में फंसे हुए है। गुरु शांत रहे हैं और बाहर बंधी गाय को खोल कर अंदर ले आए।
गुरु मन ही मन विचार करने लगे कि इन दोनों को किसी युक्ति से ही रास्ते पर लाना पडेगा।
अगले दिन प्रातः गुरु स्नान के पश्चात पूजा अर्चना के लिए आसान पर बैठ गए। तभी गुरु जी को स्मरण हो आया कि तुलसी के पत्ते तो पूजा के लिए लाया ही नहीं। गुरु जी ने तुरंत दोनों को तुलसी पत्र लाने को कहा। बाहर कडाके की सर्दी पड़ रही थी और तुलसी का पौधा गुरु की कुटिया से कुछ दूरी पर था। दोनों ही शिष्य बाहर जाना नहीं चाहते थे। इसलिए एक बोला कि गुरु जी मैं नहीं जानता कि तुलसी का पौधा कैसा दिखता है?
दूसरे को लगा कि अब मैं फंस गया हूँ मुझे तो जाना ही पड़ेगा। इसलिए उसने बोलना शुरू किया कि अरे मूर्ख! इतने बड़े हो गए हो तुम तुलसी का पौधा नहीं पहचानते। बगीचे में जिस पौधे के बड़े बड़े पत्ते है वह ही तुलसी का पौधा है। गुरु शांत भाव से बोले कि तुम भी नहीं जानते कि तुलसी का पौधा कौन सा है?
कोई बात नहीं मैं स्वयं ही तुलसी का पौधा ले आता हूँ। लेकिन मैं एक नियम का पालन करता हूँ कि अगर एक बार पूजा के लिए आसन पर बैठ गया तो फिर नहीं उठता। इसलिए तुम दोनों ऐसा करो कि मुझे आसान सहित उठाकर बगीचे मे ले जाओ। मैं स्वयं तुलसी का पत्ते ले आऊंगा। वह दोनों पर अपनी ही चतुराई भारी पड़ी। लेकिन अब गुरु को यह तो बोल नहीं सकते थे कि हम दोनों झूठ बोल रहे थे। दोनों ने आसान सहित गुरु को उठाया और बगीचे मे पहुँच गए। गुरु ने तुलसी पत्ते उतारे और बड़े प्यार उनको बताया कि यह तुलसी का पौधा है। दोनों शिष्य अब गुरु जी को वापस कुटिया में ले आए।
उधर गुरु मन ही मन मुस्कुरा रहे थे कि तुम अगर चतुर हो तो मैं भी तुम्हारा गुरु हूँ। वह गुरु ही क्या जो अपने शिष्यों के स्वभाव अनुसार उनको सबक ना सिखा सके।
GURU SHISHYA KI MOTIVATION KAHANI:
एक बार गुरु और उनका एक शिष्य कहीं जा रहे थे। मार्ग में एक नदी पार करनी थी। उस समय नदी के पानी का स्तर बहुत ऊंचा था। गुरु ने अपने शिष्य से कहा कि तुम मेरा हाथ पकड़ लो। लेकिन शिष्य ने मानो अनसुना कर दिया। गुरु के कई बार कहने पर भी शिष्य ने हाथ नहीं पकड़ा। गुरु जी ने खींच कर उसका हाथ पकड़ा और अपने साथ साथ सुरक्षित नदी के उस पार ले गए।
नदी के उस पार पहुंच कर गुरु डांटते हुए उसे कहा कि," मैंने इतनी बार तुम से कहा कि मेरा हाथ पकड़ लो तुम ने मेरी बात क्यों अनसुनी कर दी?"
शिष्य भावुक होते हुए बोला कि गुरु जी मुझे डर था कि अगर मैंने हाथ पकड़ा तो वो छूट सकता है। लेकिन जब आपने मेरा हाथ पकड़ा तो मुझे विश्वास था कि चाहे कुछ भी हो जाए आप मुझे सुरक्षित उस पार ले जाएंगे।
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