भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का सार - सांख्य योग
BHAGAVAD GITA:श्रीमद् भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का पहले श्लोक में संजय धृतराष्ट्र को कहते हैं कि करूणा से अभिभूत, शोक युक्त अर्जुन के अश्रुओं से भरे नेत्रों को देखकर श्री कृष्ण अर्जुन से यह वचन कहे।
दूसरे और तीसरे श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं तुम्हारे मन में ऐसा अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ। यह आचरण उस व्यक्ति के लिए उचित नहीं है जो व्यक्ति जीवन के मुल्यों को जानते हैं। तुम्हारे इस कृत्य से स्वर्ग की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है। अर्जुन यह नपुंसकता पूर्ण कृत्य से तुम जैसे क्षत्रिय को शोभा नहीं देता इसलिए अपने हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
चौथे से आठवें श्लोक में अर्जुन श्री कृष्ण से अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि मैं युद्धभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के समान पूज्यनीय लोगों पर पलट कर प्रहार कैसे कर सकूंगा?
उन्हें मारकर जीने से अच्छा है मैं इस लोक में भिक्षा माँग कर खा लूं। क्योंकि गुरुजनों का युद्ध में उनका वध होगा तो इस संसार में भोगी जाने वाली हर वस्तु उनके खून से सनी होगी। मैं दुविधा में हूं कि मेरे लिए क्या श्रेष्ठ है युद्ध करना या युद्ध न करना।
अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं कि मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपने स्वभाविक गुण भूल गया हूंँ । मैं आपका शिष्य आपकी शरण में आया हूंँ, कृपया आप मुझे उपदेश दीजिए।
उसके पश्चात नौवें से दसवें श्लोक में संजय महाराज धृतराष्ट्र को बताते हैं कि अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं कि मैं युद्ध नहीं लड़ूंगा ऐसा कह कर चुप हो गया। यह सुनकर श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य अर्जुन से यह शब्द कहे।
भगवान श्री कृष्ण शोक संतप्त अर्जुन को ग्यारवें श्लोक से लेकर 43 वें श्लोक में अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं।
श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम पाण्डित्यपूर्ण बातें करके उनके लिये शोक कर रहे हो, जो शोक करने योग्य नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वें न तो जीवित के लिए और न ही मृत प्राणी के लिये शोक ग्रस्त होते है। ऐसा कभी नहीं हुआ किसी काल में मैं नहीं था, या तू नहीं रहे हो अथवा ये सारे राजा कभी ना रहे हो और न ऐसा ही होगा कि आने वाले भविष्य में हम सब लोग नहीं रहेंगे।
जो व्यक्ति दुःख और सुख में भी विचलित नहीं होते और दोनों परिस्थितियों में समभाव रहते है, वह धीर पुरुष निश्चित रुप से मुक्ति के अधिकारी है। आत्मा का नाश करने का समर्थ किसी में नहीं है। जो इस जीवात्मा को मारने वाला मानता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी है, क्योंकि आत्मा न तो किसी को मारता है और न उसे किसी द्वारा मारा जाता है।
आत्मा का न तो किसी काल में जन्म हुआ और न ही मृत्यु। वह ना तो किसी काल जन्मा, न ही जन्म लेता है और ही जन्म लेगा। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मरने पर भी वह नहीं मारा जा सकता है।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा जीर्ण शरीरों को त्याग कर नवीन शरीरों को धारण करता है।
आत्मा को न तो किसी शस्त्र द्वारा काटा सकता है, न ही अग्नि के द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है अर्थात आत्मा अजर-अमर और शाश्वत है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदा एक समान रहने वाला है। आत्मा को विकार रहित जानकर तुम को शोक नहीं करना चाहिए है।
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुनर्जन्म निश्चित है, अत: इस अपरिहार्य घटना पर शोक नहीं करना चाहिए।
श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं और क्षत्रिय होने के नाते तुम को अपने क्षत्रिय धर्म का ज्ञान होना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने के बढ़कर अन्य कोई कर्तव्य नहीं है । अतः तुमको युद्ध करने से संकोच नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि तू युद्ध करने के स्वधर्म को नहीं करेगा तो तू योद्धा के रुप से अपने यश खो देगा और तुम पर अपने कर्तव्य कर्म की उपेक्षा करने का पाप लगेगा।
यदि तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त करेंगे और यदि तुम युद्ध में विजयी हो गये तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अत: तुम दृढ संकल्प करके खड़ा हो जाओ और युद्ध करो। तुम सुख या दुःख, हानि या लाभ और विजय या पराजय के विचार को त्याग कर युद्ध के लिये ही युद्ध करो, ऐसा करने से तुम पाप नहीं लगेगा।
उनतालीसवें श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैंने सांख्य योग के द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम कर्म-योग के विषय बता रहा हूं, तू उसे सुन, यदि तू इस ज्ञान से कर्म करेगा तो तू कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकेगा।
जो व्यक्ति इस निष्काम कर्म-योग के मार्ग पर चलते है वें दृढ़ प्रतिज्ञ होते हैं और उनका लक्ष्य भी एक होता है, किन्तु जो दृढ़ प्रतिज्ञ नही है उनकी बुद्धि अनन्त शाखाओं में विभक्त रहती हैं।
तेरा अपने कर्म करने में ही अधिकार है, किन्तु उसके फलों के तुम अधिकारी नहीं हो, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और ना ही अपने कर्म न करने में तेरी आसक्ति हो।
इसलिए तू जय तथा पराजय में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित होकर अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर। ऋषि-मुनि तथा भक्त सकाम कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्याग कर जन्म-मृत्यु के चक्रों से मुक्त जाते हैं। वह उस परम-पद को प्राप्त हो जाते हैं जो समस्त दुःखों से परे है।
जब तुम्हारा मन वैदिक ज्ञान के वचनों को सुनने से विचलित न हो तथा तू आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थित हो जाए तब तुम्हारी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जाएगी।
44 वें श्लोक में अर्जुन श्री कृष्ण से प्रश्न करते हैं कि हे केशव! अध्यात्म में लीन स्थिर-बुद्धि वाले पुरुष के क्या लक्षण है? वह पुरुष कैसे बोलता है? उसकी भाषा क्या है? वह कैसे बैठता है ? और किस प्रकार चलता है?
45 वें श्लोक से 72 वें श्लोक श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। श्री कृष्ण ने कहते हैं कि जब पुरुष मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय तृप्ति की समस्त प्रकार की कामनाओं त्याग कर देता है तब इस प्रकार विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में सन्तोष प्राप्त करता है तब वह विशुद्ध चेतना को प्राप्त कर स्थिरप्रज्ञ कहलाता है ।
दुःख की प्राप्ति होने पर जिसका मन में विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति से प्रसन्न नही होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त हैं, ऐसा स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है। जो मनुष्य इन्द्रियों को इन्द्रिय-विषयों से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में दृढ़ता से स्थिर होता है।
इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है वें उस विवेकी व्यक्ति के मन को भी बल पूर्वक हर लेती है। लेकिन इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वही व्यक्ति स्थिर-बुद्धि वाला कहलाता है।
इन्द्रियविषयों का मनन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति उत्पन्न हो जाती है, ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध उत्पन्न होता है
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है। जब स्मरण-शक्ति में भ्रमित हो जाती है तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है। किन्तु सभी राग-द्वेष से मुक्त रहने एवं अपनी इन्द्रियों को संयम द्वारा वश में करके समर्थ पुरुष ईश्वर की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।
लेकिन जो मनुष्य ईश्वर से जुड़ा नहीं है उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है इनके बिना न ही शान्ति प्राप्त होती है और शान्ति के बिना मनुष्य को सुख भी कैसे संभव है?
जैसे पानी में तैरने वाली नाव को प्रचंड वायु दूर बहा कर ले जाती है, उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह ही मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है। जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।
जैसे अनेकों नदियाँ सभी ओर से समुद्र को विचलित किए बिना निरंतर समुद्र में प्रवेश करती रहती है। वैसे ही जो स्थित-प्रज्ञ मनुष्य इच्छाओं से विचलित नहीं होता। वही मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त होता है, ना कि ऐसी इच्छाओं का सुख चाहने वाला। जिस मनुष्य ने समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग दिया है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।
यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करने पर मनुष्य को कभी मोह नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाए तब भी वह भगवद् प्राप्ति कर सकता है।
FAQ
प्रश्न - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का पहला श्लोक किसने बोला है?
उत्तर - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का पहला श्लोक संजय ने बोला है।
प्रश्न - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय में कितने श्लोक है?
उत्तर - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय में 72 श्लोक है।
प्रश्न - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का अंतिम श्लोक किसने बोला है?
उत्तर - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का अंतिम श्लोक श्री कृष्ण ने बोला है।
प्रश्न - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का क्या नाम है?
उत्तर - भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का नाम सांख्य योग है।
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